प्रेमचंद्र पर किसी भी परिचर्चा से पूर्व यह जरूरी है कि प्रेमचंद्र कालीन भारतीय समाज की संरचना, समस्यायें और उनकी विरासत की जानकारी प्राप्त करें। प्लासी के युद्ध के बाद 1773 में जमीन पर ग्रामीण समाज का मालिकाना हक खारिज कर स्थायी बंदोबस्ती व्यवस्था के द्वारा किसानों के सिर पर अभिजात जमींदारों और ताल्लुकेदारों नामक परजीवियों को बैठा दिया गया। सर, नाइट, राय बहादुर आदि तमाम सरकारी पदवियों से अलंकृत इस विशिष्ट समुदाय का काम था- अंग्रेजों की जीहुजूरी करना, किसानों पर शासन करना और किसानों से हर हालत में लगान वसूल करना। राजस्व वसूली की इस ठेकेदारी प्रथा में केवल किसान की जिम्मेदारी थी कि उस पर आश्रित परजीवी जमींदारों और सर्वोपरि ईस्ट इंडिया कंपनी और बाद में ब्रिटिश इंडिया की सर्वग्रासी भूख को शांत करने की। परिणामत: किसानों और कारीगरों का पुरानी स्वाभाविक जीवन कहीं खो सा गया। उन्हें मिली भूख और गरीबी। जमींदार-ब्रिटिश राज की संयुक्त शोषण व्यवस्था से सर्वत्र हाहाकार फैल गया। कई भयंकर अकाल पड़े। विध्वंस के इस प्रवाह में किसानों के धैर्य का बांध टूट गया। देश में एक के बाद एक किसान विद्रोह होने लगे। संन्यासी विद्रोह से लेकर सन्याल विद्रोह तक, विद्रोहों का एक अटूट सिलसिला चल पड़ा जिसकी परिणिति थी 1857 की महान क्रांति। 1857 की महान क्रांति असफल जरूर रही किंतु इसी के साथ ब्रह्मï समाज, आर्य समाज, थियोसोफिकल सोसाइटी, रामकृष्ण मिशन आदि के माध्यम से तमाम सुधारवादी आंदोलन भारतीय समाज में व्याप्त सामाजिक अवरोधों के खिलाफ अपनी आवाज बुलंद करने लगे। सती प्रथा, बाल विवाह, विधवा विवाह, अछूत समस्या, रूढि़वादिता, अंधविश्वास आदि तमाम समस्याओं पर वैचारिक आंदोलन प्रारंभ हो गये। 1885 में कांग्रेस पार्टी की स्थापना हो चुकी थी। गदर पार्टी के नेतृत्व में क्रांतिकारी आंदोलन प्रारंभ हो चला था। कार्ल माक्र्स की विचारधारा विश्व को प्रभावित कर रही थी। भारत भी इससे अछूता नहीं था। इस सामाजिक-राजनैतिक पृष्ठभूमि में नवाब राय की पहली पुस्तक सोजेवतन 1908 में प्रकाशित होती है। सोजेवतन की भूमिका और इस पुस्तक के प्रकाशन हेतु पं. महावीर प्रसाद द्विवेदी को लिखे पत्र से नवाब राय की समाज एवं देश के प्रति संवेदनशीलता की जानकारी प्राप्त होती है- पत्र का मजमून है- अपनी एक नाचीज किताब (सोजेवतन) खाना-ए-खिदमत (सेवा में प्रेषित) करता हूं। मुनासिब रिव्यू फरमा कर मशकूरी (कृतज्ञता) का मौका दीजिये। उम्मीद है रिव्यू किसी ताजा अंक में निकलेगा। यह किताब नफा-ए-आम (जनहित) में लिखी गयी है। इस लिहाज से कीमत भी कम रखी गयी है। जाती (निजी) का नफा मकसूद (नहीं) है। सोजेवतन की भूमिका में नवाब राय लिखते हैं- हरेक कौम का इल्म-औ-अदब अपने जमाने की सच्ची तस्वीर होता है, जो खयालात कौम के दिमाग को मतहर्रिक (सक्रिय) करते हैं और जो जज्बात कौम के दिलों में गूंजते हैं वो नज्म औ नस्त (गद्य-पद्य) के सफों में ऐसी सफाई से नजर आते हैं जैसे आइने में सूरत। आज के जमाने के कसम व हिकायत (किस्से तथा कहानी) ज्यादातर इस्लाह (सुधार) और तज्दीद (नवीनता) का पहलू लिये हुये हैं। अब हिंदुस्तान के कौमी ख्याल ने बालोगीयत (बालिगपन, बुद्धिमता) के जीने पर एक कदम और बढ़ाया है और हुब्बे-वतन के जज्बात लोगों के दिलों में उभरने लगे हैं। क्यूं कर मुमकिन था कि इसका असर अदब पर न पड़ता? ये चंद कहानियां इसी असर का आगाज (प्रारंभ) हैं और यकीन है कि जूं-जूं हमारे ख्याल वसीह (विस्तृत) होते जायेंगे, इसी रंग के लिटरेचर को राज-अफ्जो (प्रतिदिन बढऩा) फरोग (उन्नत) होता जायेगा। हमारे मुल्क को ऐसी किताबों की सख्त जरूरत है जो नयी नस्ल के जिगर पर हुब्बे-वतन (देश प्रेम) की अजमत (महिमा) का नक्शा जमायें। जैसा कि स्वाभाविक था, तत्कालीन अंग्रेजी शासन ने सोजेवतन की जब्ती के आदेश दे दिये। पांच सौ प्रतियां जलाकर राख कर दी गयीं किंतु नवाब राय की कलम से निकलने वाले देश प्रेम एवं दलित संघर्ष का प्रवाह गतिमान हुआ जो अविराम प्रखर से प्रखरतर होता गया। हां, अब ये नवाब राय न रहकर प्रेमचंद्र हो गये थे। सोजेवतन की पहली कहानी दुनिया का सबसे अनमोल रतन में प्रेमचंद्र लिखते हैं- खून का आखिरी कतरा जो वतन की हिफाजत में गिरे, दुनिया का सबसे अनमोल रतन है। दूसरी कहानी मेरा वतन में दुनिया की कोई भी इच्छा, कोई भी आकांक्षा मुझे यहां से नहीं हटा सकती क्योंकि यह मेरा देश है, मेरी प्यासी मातृभूमि है और मेरी लालसा है कि मैं अपने देश में मरूं। विदेशी शासन से मुक्ति के साथ-साथ यह भी जरूरी है कि सामाजिक विषमताओं, रूढिय़ों, अंधविश्वास और साथ ही आर्थिक असमानता के खिलाफ भी जंग की जाये। इसी क्रम में सोजेवतन से आगे बढ़कर 1918 में सेवा सदन, 1921 में प्रेमाश्रम, 1925 में रंगभूमि, 1932 में कर्मभूमि आदि उपन्यासों के माध्यम से प्रेमचंद्र ने विविध समस्याओं को चिह्निïत किया। सेवा सदन में प्रेमचंद्र स्त्री समस्या से रूबरू होते हैं। दहेज, अनमेल विवाह, सामाजिक रूढिय़ां, पुलिस वर्ग के काले कारनामों का सजीव चित्रण है इस उपन्यास में। प्रेमाश्रम ग्रामीण जीवन की विषमताओं और किसानों की समस्या पर आश्रित है। जमींदारों का अत्याचार, ताल्लुकेदारों का विलासी जीवन, पटवारी-कारिंदों-मुंशी-पुलिस और अदालत के चंगुल में फंसा आम आदमी किसान, यही कथावस्तु है प्रेमाश्रम की। रंगभूमि, भारतीय जनजीवन का रंगमंच है। एक साथ औद्योगिक और ग्रामीण जीवन की तुलना, पूंजीवाद का विरोध, व्यक्ति के अधिकारों की सुरक्षा, धार्मिक रूढि़वादिता का विरोध, राष्टï्रीय स्वतंत्रता के लिये जनआंदोलन का समर्थन, देशी राज्यों की कुत्सित राजनीति पर केंद्रित है यह उपन्यास। कर्मभूमि में प्रेमचंद्र नगरीय और ग्रामीण दोनों जीवन धाराओं में राजनैतिक चेतना का संचार करना चाहते हैं। मंदिरों में अछूतों का प्रवेश, महंतों का आडंबर और भोगलिप्सा, अंधविश्वास आदि तमाम सामाजिक आर्थिक समस्याओं के साथ ही मजदूर किसानों की हीनावस्था, सरकारी दमन, पूंजीपतियों का शोषण आदि समस्याओं का चित्रण कर्मभूमि में है। इस प्रकार विभिन्न उपन्यासों एवं कहानियों के माध्यम से सामाजिक, आर्थिक एवं राजनैतिक क्षेत्र की प्राय: प्रत्येक समस्या पर अपनी पैनी कलम से वार करते हुये 1936 में प्रेमचंद्र की प्रौढ़तम अमर कृति गोदान आती है। गोदान एक महागाथा है, प्रेमचंद्र का वसीयतनामा है। गोदान प्रेमचंद्र की वसीयत विरासत दोनों एक साथ है। तमाम प्रश्न हैं इसमें, भावी समाज, भावी दुनिया कैसी होगी, इस ओर एक निश्चित दृष्टि भी है गोदान में। 1947 में हमने स्वराज्य पाया किंतु आधा अधूरा क्योंकि जिन प्रश्नों की ओर प्रेमचंद्र ने इशारा किया था उनके हल खोजना आज भी शेष हैं। उन प्रश्नों को सुलझा लेने के बाद ही हम प्रेमचंद्र की नजरों में स्वाधीन कहलाने लायक बन सकेंगे। प्रश्न हैं- 1- होरी की मृत्यु सहज स्वाभाविक है या इस मृत्यु की जिम्मेदार कुछ शक्तियां हैं? 2- भूमंडलीकरण के इस दौर में हजारों किसानों की आत्महत्या का जिम्मेदार कौन है?
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